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विलाप / मिथिलेश कुमार राय

दुख का साम्राज्य बहुत बड़ा है ।

यह एक बूढ़ी का वक्तव्य है,
जो बोलती थीं तो लगता था
कि गाढ़ा होकर दुख ही बरस रहा है ।
दुख सुनते हुए मैं लगातार भीग रहा था,
उसी ने फिर सुखाया ।
सुख की, बस, कुछ यादें थीं उनके पास
जो आती थीं तो लगता था
कि रौशनी आ गई है,
कोई कुछ इस तरह आ गया है
जो उसे आकर गुदगुदाता है
और बदले में वह खिलखिलाने लगतीं हैं ।

सुख तो, बस, कुछ यादें हैं ।

यह भी उसी स्त्री का वक्तव्य है
जो दुख से भींगकर जब थरथराने लगतीं
गाँठ खोलतीं
और उसके थोथले मुँह हंसी से भर जाते