बात दरअसल ये है कि जब भी तुम मेरे सामने आती हो,
मुझे तुम्हारे भीतर एक जंगली झाड़ी दिखती है।
इस झाड़ी में एक लाश छुपी है।
बड़े वक़्त से वहीं पड़ी है। लेकिन अचरज की बात है कि
यह लाश पानी, हवा, धूप और हर तरह के
कीड़ों -जीवाणुओं ले लड़ सकती है। सड़ती-गलती नहीं।
जंगली जानवर भी इसके पास नहीं फटकते,
रात को इसके बदन से रोशनी निकलती है।
मुझे पता है यह मेरी लाश है।
लेकिन बात ये भी है कि यह लुका-छिपी अब
बन्द होनी चाहिए।
और होगी बन्द, जिस दिन चार पाँव सिकोड़े, मैं
मुँह में दबाकर लाश के पाँव
उसे झाड़ी से खींच बाहर करूँगा।
जय गोस्वामी की कविता : ' बिबाहिता के' का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित