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16:07, 9 दिसम्बर 2010 हरी बिछली घास।<br />
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।<br />
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अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका<br />
अब नहीं कहता,<br />
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,<br />
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो <br />
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है<br />
या कि मेरा प्यार मैला है।<br />
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बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।<br />
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।<br />
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कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।<br />
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :<br />
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादु के-<br />
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-<br />
अगर मैं यह कहूं-<br />
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बिछली घास हो तुम<br /> लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?<br />
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आज हम शहरातियों को<br />
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से <br />
सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-<br />
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,<br />
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी<br />
अकेली <br />
बाजरे की।<br />
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और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं<br />
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-<br />
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित<br />
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शब्द जादु हैं-<br />
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?<br />