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12:44, 13 दिसम्बर 2010 <poem>'''कारीगर'''
(कवि चंद्रकांत देवताले के लिए)
इतिहास की किताब की तरह
पुराना और ठोस चेहरा
चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें
इतनी बड़ी कि उनमें
घूमती हुई पृथ्वी साफ दिखाई दे
पसलियों के नीचे
प्रेम से लबालब हृदय में
इतना स्नेह कि
घर पड़ोस के ईंट पत्थर भी
उसके करीब बना रहना चाहें
अखबार की खबरों से चिंतित
उसका मन
कोलम्बस की तरह भटक रहा है
वह देखना और छूना चाहता है
ब्रह्माण्ड का चप्पा-चप्पा
उसकी खुरदुरी हथेलियों पर
नहीं बची है कोई रेखा
उंगलियों में लोहे की छड़ जैसी
ताकत पैदा गयी है
जब वह हथेलियों और उंगलियों को
मुट्ठी की तरतीब में कर रहा होता है
उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर
पसीने छूटने लगते हैं
किसी छरहरे पेड़ की तरह
रखता है वह धरती पर पॉव
अपने तलुओं को
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ
समय में प्रवेश करता है
किसी ठठेरे की तरह
सुधारता है समय के गढ्ढों को
वह एक कारीगर है
जिसके कानों पर
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं
वह तरास रहा है
काट- जोड़ रहा है
काम कर रहा है
लिख रहा है कविताऐं
आधी शताब्दी से निरन्तर।
</poem>