{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=प्रदीप मिश्र|संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''दुःखी मन की तलाश''' दु:खी दुःखी मन पर होता है इतना बोझ
सम्भाले न सम्भले इस धरती से
हवा ले उड़ना चाहे तो
धप्प् से गिर जाए
दु:खी दुःखी मन में होती है इतनी पीड़ा
माँ का दिल भी पछाड़ खा जाए
पिता रो पड़ें फफक्करफफककर
बहन छोड़ दे
डोली चढ़ने के सपने
दु:खी दुःखी मन में होती है इतनी निराशा
जैसे महाप्रलय के बाद
पृथ्वी पर बचे एकमात्र जीव की निराशा
दुःखी मन जंगल में
भटकता हुआ मुसाफिर मुसाफ़िर होता है
जिसे घर नहीं
नदी या सड़क की तलाश होती है
नदी में नहा कर
जब उतरता है सड़क पर
मंजिलें मंज़िलें सरकने लगतीं हैं उसकी तरफ तरफ़ ।
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