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|रचनाकार=प्रदीप मिश्र
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<poem>
'''नहीं बने शब्द कोश'''
किसी पिंड में
सृजन की ऊष्मा इतनी तीव्रता से उफने उफ़ने कि
फूटकर बिखर जाय वह पूरे अंतरिक्ष में
जिस तरह से किसान बिखेरता खेतों में बीज
उपग्रहों के चक्कर काटें ग्रह
ग्रहों का सूर्य
हिमालय पिघलकर समुन्द्र समुद्र बन जायऔर समुन्द्र समुद्र हराभरा पहाड़
पेड़-पौधे मनुष्यों की तरह चलें फिरें
चिड़ियाँ समुन्द्र समुद्र में तैरें
मछलियाँ ले उड़ें मछुए की जाल
मनुष्यों का स्मृतिलोप हो जाय
इतिहास डूब जाय प्रलय की बाढ़ में
फिर नए सिरे से पहचाने जाएंजाएँ
जंगल-पेड़-पहाड़-जीव-जंतु
निर्मित हो नई-नई भाषा