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किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार

9 bytes added, 09:23, 25 दिसम्बर 2010
अब अक्सर गुजर जाती है कम्पयुटर की परदों पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब निंद नींद में चलने की आदत हो गई है
जो गज्लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
कोई सफ्हा पलटता हूं तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सुखे टूंड लगते है वो सब अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों का को अपने रहल की सुरत बनाकर नीम सज्दें सज़दे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
सुखे फूल और महके हुए रूक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्तें बना करते थे
अब उनका क्या होगा...!!
</Poem>
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