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<poem>प्रीतम चंदा से मिलने को आयी थी बन दुल्हन शाम
वह निर्मोही आया लो कब, लौट गयी जब विरहन शाम

दिन चाहे जितना लम्बा था , जैसे तैसे बीत गया
आज ह्रदय पर बैठ गयी पर , बनकर पत्थर बैरन शाम

कल की रात गयी थी मुझको छोड़ अकेला दुनिया में
जाने किस किस द्वार भटक कर लौटी है अब पापन शाम

जाने क्या क्या माँग रही थी, कुछ न मिला तो लौट गयी
थोड़ी देर रुकी थी आकर मेरे द्वार भिखारन शाम

जैसे कोई अल्हड़ गोरी पी से मिलने को निकले
यूं ही आँख बचा सूरज से , उतरी मेरे आँगन शाम

नक्षत्रों के दीप सजाये, नील गगन की थाली में
हर मंदिर के प्रांगन आती, देखो एक पुजारन शाम</poem>
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