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{{KKRachna
| रचनाकार= नक़्श लायलपुरी
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अपनी भीगी हुई पलकों पे सजा लो मुझको
रिश्ताए-दर्द समझकर ही निभा लो मुझको

चूम लेते हो जिसे देख के तुम आईना
अपने चेहरे का वही अक्स बना लो मुझको

मैं हूँ महबूब अंधेरों का मुझे हैरत है
कैसे पहचान लिया तुमने उजालो मुझको

छाँओं भी दूँगा, दवाओं के भी काम आऊँगा
नीम का पौदा हूँ, आँगन में लगा लो मुझको

दोस्तों शीशे का सामान समझकर बरसों
तुमने बरता है बहुत अब तो संभालो मुझको

गए सूरज की तरह लौट के आ जाऊँगा
तुमसे मैं रूठ गया हूँ तो मन लो मुझको

एक आईना हूँ ऐ 'नक़्श' मैं पत्थर तो नहीं
टूट जाऊँगा न इस तरह उछालो मुझको
</poem>
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