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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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बेवफ़ा को भी जहाँ में बावफ़ा मिल जाएगा
नफ़रतों से प्यार का उसको सिला मिल जाएगा

शेख़, हम होंगे जुदा वादा बिरहमन यार का
जब मुझे भगवान या तुझको ख़ुदा मिल जाएगा

फूल बनकर ही खुलेगा बन्द कलियों का नसीब
सर चढ़ेगा, कोई क़दमों में पड़ा मिल जाएगा

बन्द हैं सब खिड़कियाँ और बन्द हैं सारे किवाड़
घर में कैसे मुफ़लिसी को दाख़िला मिल जाएगा

थक के वो बैठा ही था, फिर चल पड़ा ये सोचकर
कोई न कोई कहीं तो दर खुला मिल जाएगा

कम नहीं होंगे सितम, बेहतर है साथी ढूंढ ले
“ज़ुल्म से लड़ने का दिल को हौसला मिल जाएगा”

है तो मुश्किल, कोशिशों से तू बना मुमकिन 'रक़ीब'
सर छिपाने को कहीं भी घोंसला मिल जाएगा
</poem>
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