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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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ज़रा सा हौसला होता तो तूफां से गुज़र जाते
यक़ीनन आप कश्ती से सरे साहिल उतर जाते

मुहब्बत पाक थी, नापाक हो जाती तो क्या होता
किसी के क़ुर्ब में रहकर अगर हद से गुज़र जाते

मुक़द्दर साथ देता तो मज़ा जीने का आ जाता
ख़ुशी हर इक इधर आ जाती सारे ग़म उधर जाते

हक़ीक़त आ गयी थी दो दिलों के दरमियां वरना
मुहब्बत के फ़साने में बहुत से रंग भर जाते

करम फ़रमाई उनकी जाग उट्ठी मेहरबानी है
ख़ुदा ने ख़ैर की वरना कई जिस्मों से सर जाते

कभी जीने नहीं देते ये हरगिज़ चैन से हमको
अगर हम लम्हा भर को भी जहां वालों से डर जाते

हबीबे बावफ़ा ने ज़िन्दगी बख्शी मुहब्बत को
'रक़ीब'-ए-बेनवा वरना तेरे जज़बात मर जाते
</poem>
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