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17:30, 7 जनवरी 2011 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
न चल, के चलती है जैसे हिरन ख़ुदा के लिए
बदल दे, अच्छा नहीं ये चलन ख़ुदा के लिए
न पलने देना कभी साँप आस्तीनों में
कुचलते रहना यूँ ही फन पे फन ख़ुदा के लिए
लगा भी ले मुझे सीने से रूप की देवी
बुझा भी दे मेरे मन की अगन ख़ुदा के लिए
सुनो ऐ जुगनुओ तुम जाओ जा के सो जाओ
मेरे नसीब में है जागरन, ख़ुदा के लिए
ख़ुदा से प्यार है तुझको जो तेरा दावा है
सदा रहे तेरा जीवन-मरन ख़ुदा के लिए
हर इक शहीद जहाँ से गया ये कहता हुआ
लुटा न देना मता-ए-वतन ख़ुदा के लिए
'रक़ीब' ख़ार सिफत लोग मुश्तइल होंगे
"न छेड़ जिक्रे-गुले खंदजन ख़ुदा के लिए"
</poem>