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रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद'
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गरीबी में बशर एक एक करके बेच देता है
वो अपने घर के बरतन और गहने बेच देता है

लहू से जिनको सींचा है वो पौधे बेच देता है
जरूरत के लिए इन्सान बच्चे बेच देता है

शिकं की भूख उसको इस कदर मजबूर करती है
बदन का खून क्या इन्सान गुर्दे बेच देता है

तआज्जुब ये नहीं इस दौर में इन्सान बिकते हैं
तआज्जुब ये है कि इन्सान मुर्दे बेच देता है

दूकान उसकी भी लुट जाती है अक्सर हमने देखा है
जो दिन भर न जाने कितने ताले बेच देता है

मयस्सर जब नहीं होती किसी फनकार को रोटी
तो वो झुंझला के अपने सारे तमगे बेच देता है

हमारी दास्ताँ खुद तो नहीं पढता कभी लेकिन
हमारे नाम पर कितने रिसाले बेच देता है

अमीरे शहर भी जब वक्त की गर्दिश में आता है
करोड़ों की हवेली औने-पौने बेच देता है

पडा जब वक्त तब जाके हुआ एहसास ये 'बेखुद'
कि इक मुफलिस यहाँ ईमां कैसे बेच देता है</poem>