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धूमिल की कुछ कविताएँ
 
 
1 दिनचर्या
 
सुबह जब अंधकार कहीं नहीं होगा,
 
हम बुझी हुई बत्तियों को
 
इकट्ठा करेंगे और
 
आपस में बांट लेंगे.
 
दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी
 
और न झड़ती हुई पत्तियाँ
 
आकाश नीला और स्वच्छ होगा
 
नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ
 
हम मोड़ पर मिलेंगे और
 
एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.
 
 
रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह
 
प्रिय होगा हम वायलिन को
 
रोते हुए सुनेंगे
 
अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे
 
दुःखी होंगे.
 
 
2 नगर-कथा
 
सभी दुःखी हैं
 
सबकी वीर्य-वाहिनी नलियाँ
 
सायकिलों से रगड़-रगड़ कर
 
पिंची हुई हैं
 
दौड़ रहे हैं सब
 
सम जड़त्व की विषम प्रतिक्रिया :
 
सबकी आँखें सजल
 
मुट्ठियाँ भिंची हुई हैं.
 
व्यक्तित्वों की पृष्ठ-भूमि में
 
तुमुल नगर-संघर्ष मचा है
 
आदिम पर्यायों का परिचर
 
विवश आदमी
 
जहाँ बचा है.
 
बौने पद-चिह्नों से अंकित
 
उखड़े हुए मील के पत्थर
 
मोड़-मोड़ पर दीख रहे हैं
 
राहों के उदास ब्रह्मा-मुख
 
‘नेति-नेति' कह
 
चीख रहे हैं.
3 गृहस्थी : चार आयाम
 
मेरे सामने
 
तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में
 
खड़ी हो
 
और मैं लज्जित-सा तुम्हें
 
चुप-चाप देख रहा हूँ
 
(औरत : आँचल है,
 
जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,
 
किन्तु मुझे लगता है-
 
इन दोनों से बढ़कर
 
औरत एक देह है)
 
मेरी भुजाओं में कसी हुई
 
तुम मृत्यु कामना कर रही हो
 
और मैं हूँ-
 
कि इस रात के अंधेरे में
 
देखना चाहता हूँ - धूप का
 
एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर
 
 
रात की प्रतीक्षा में
 
हमने सारा दिन गुजार दिया है
 
और अब जब कि रात
 
आ चुकी है
 
हम इस गहरे सन्नाटे में
 
बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर
 
किसी स्वस्थ क्षण की
 
प्रतीक्षा कर रहे हैं
 
न मैंने
 
न तुमने
 
ये सभी बच्चे
 
हमारी मुलाकातों ने जने हैं
 
हम दोनों तो केवल
 
इन अबोध जन्मों के
 
माध्यम बने हैं
 
धूमिल की अंतिम कविता
 
 
"शब्द किस तरह
 
कविता बनते हैं
 
इसे देखो
 
अक्षरों के बीच गिरे हुए
 
आदमी को पढ़ो
 
क्या तुमने सुना की यह
 
लोहे की आवाज है या
 
मिट्टी में गिरे हुए खून
 
का रंग"
 
लोहे का स्वाद
 
लोहार से मत पूछो
 
उस घोड़े से पूछो
 
जिसके मुँह में लगाम है.
 
**-**
 
(साभार - कविता संग्रह - कल सुनना मुझे, युगबोध प्रकाशन, वाराणसी, 1977)
 
नीलेश रघुवंशी की पाँच कविताएँ
 
 
ज़रा ठहरो
माँ, प्यारी माँ<br>
मुझे अपनी शरण में ले<br>
 
 
मैं मौन रहूँ
 
तुम गाओ
 
जैसे फूले अमलतास
 
तुम वैसे ही
 
खिल जाओ
 
 
जीवन के
 
अरुण दिवस सुनहरे
 
नहीं आज
 
तुम पर कोई पहरे
 
जैसे दहके अमलतास
 
तुम वैसे
 
जगमगाओ
 
 
कुहके जग-भर में
 
तू कल्याणी
 
मकरंद बने
 
तेरी युववाणी
 
जैसे मधुपूरित अमलतास
 
तुम सुरभि
 
बन छाओ
 
 
अनमने दिन
दिन बीते
रीते-रीते
इन सूनी राहों पे
 
मिला न कोई राही
बना न कोई साथी
वन सूखे चाहों के
 
याद न कोई आता
न मन को कोई भाता
घेरे खाली हैं बाहों के
 
कलप रहा है तन
जैसे भू-अगन
दिन आए फिर कराहों के
 
 
अभ्रकी धूप
 
 
यह धूप बताशे के रंग की
 
यह दमक आतशी दर्पण की
 
कई दिनों में आज खिल आई है
 
यह आभा दिनकर के तन की
 
 
फिर चमक उठा गगन सारा
 
फिर गमक उठा है वन सारा
 
फिर पक्षी-कलरव गूँज उठा
 
कुसुमित हो उठा जीवन सारा
 
 
यह धूप कपूरी, क्या कहना
 
यह रंग कसूरी, क्या कहना
 
अक्षत-सा छींट रही मन में
 
उल्लास-माधुरी क्या कहना
 
 
फिर संदली धूल उड़े हलकी
 
फिर जल में कंचन की झलकी
 
फिर अपनी बाँकी चितवन से
 
मुझे लुभाए यह लड़की
 
 
पहले की तरह
 
 
पहुँच अचानक उस ने मेरे घर पर
 
लाड़ भरे स्वर में कहा ठहर कर
 
''अरे. . . सब-कुछ पहले जैसा है
 
सब वैसा का वैसा है. . .
 
पहले की तरह. . .''
 
 
फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरा
 
लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा
 
 
उदास नज़र से मैं ने उसे ताका
 
फिर उस की आँखों में झाँका
 
 
मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सी
 
हँसी ज़ोर से किसी बहकी गुड़िया-सी
 
 
चूमा उस ने मुझे, फिर सिर को दिया खम
 
बरसों के बाद इस तरह मिले हम
 
पहले की तरह
 
 
प्रतीक्षा
 
 
अभी महीना गुज़रा है आधा
 
शेष और हैं पंद्रह दिन
 
समय यह सरके कच्छप-गति से
 
नंदिनी तेरे बिन
 
 
जीवन खाली है, मन खाली
 
स्मृति की जकड़न
 
नीली पड़ गई देह विरह से
 
घेर रही ठिठुरन
 
 
मर जाएगा कवि यह तेरा
 
बिखर जाएगा फूल
 
अरी, नंदिनी, जब आएगी तू
 
बस, शेष बचेगी धूल
 
बदलाव
 
जब तक मैं कहता रहा
 
जीवन की कथा उदास
 
उबासियाँ आप लेते रहे
 
बैठे रहे मेरे पास
 
 
पर ज्यों ही शुरू किया मैं ने
 
सत्ता का झूठा यश-गान
 
सिर-माथे पर मुझे बैठाकर
 
किया आप ने मेरा मान
 
 
वह दिन
 
 
उचकी वह पंजों पर थोड़ा-सा
 
फिर मेरी ओर होंठ बढ़ाए
 
चूमा उसे मैं ने यों, ज्यों मारा कोड़ा-सा
 
यह अहम हमारा हमें लड़ाए
 
 
फिर झरने लगे आँसू वहाँ निरंतर
 
धुल गए बोझल से वे पल-छिन
 
सावन की बारिश में निःस्वर
 
डूब गया वह उदास दिन
 
 
वह लड़की
 
 
दिन था गर्मी का, बदली छाई थी
 
थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई
 
लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी
 
थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई
 
 
मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका
 
करती है वह क्या काम
 
याद मुझे बस, संदल का भभका
 
और उस के चेहरे की मुस्कान
 
 
विरह-गान
 
(कवि उदय प्रकाश के लिए)
 
 
दुख भरी तेरी कथा
 
तेरे जीवन की व्यथा
 
सुनने को तैयार हूँ
 
मैं भी बेकरार हूँ
 
 
बरसों से तुझ से मिला नहीं
 
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
 
एक पत्ता भी खिला नहीं
 
 
तू मेरा जीवन-जल था
 
रीढ़ मेरी, मेरा संबल था
 
अब तुझ से दूर पड़ा हूँ मैं
 
 
संदेसा
 
 
कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
 
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
 
कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
 
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल
 
 
क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
 
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
 
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
 
लगे, दूर है बहुत मस्क्वा से भोपाल
 
 
बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
 
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
 
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
 
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण
 
 
होली का वह दिन
 
 
होली का दिन था
 
भंग पी ली थी हम ने उस शाम
 
घूम रहे थे, झूम रहे थे
 
माल रोड पर बीच-सड़क हम सरेआम
 
 
नशे में थी तू परेशान कुछ
 
गुस्से में मुझ पर दहाड़ रही थी
 
बरबाद किया है जीवन तेरा मैं ने
 
कहकर मुझे लताड़ रही थी
 
 
मैं सकते में था
 
किसी चूहे-सा डरा हुआ था
 
ऊपर से सहज लगता था पर
 
भीतर गले-गले तक भरा हुआ था
 
 
तू पास थी मेरे उस पल-छिन
 
बहुत साथ तेरा मुझे भाता था
 
औ' उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
 
यह विचार भी मन में आता था
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