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वाह कलियुग! / हेमन्त शेष
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06:17, 17 जनवरी 2011
|संग्रह=अशुद्ध सारंग / हेमन्त शेष
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वाह कलियुग!
काम पर जाते हुए
हम रोज़ प्रार्थना करते हैं
एक न एक शव को।
घर लौट कर शीशा देखते हैं
प्रणाम करते हुए डरते हैं
हम नित्य
प्रणाम करने वालों के लिए।
</poem>
अनिल जनविजय
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