उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। ’उत्तराखण्ड भारती’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 पर यह अंकित है कि निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः- हृदयों में जागेगा प्रेम और नयनों में चमक उठेगा सत्य, मिटेंगे झूठे सपने। लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः-
मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल, मक्खी से जिसमें फँसे ,चन्द्र कुँवर बर्त्वाल। खडी हो रही हड्डियाँ, सूख रही है खाल।
अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-
प्रिय यशपाल जी,
अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूँ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा....सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूँ और इधर उधर अस्त-व्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।
और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद आजाद भारत की हवा में कुछ साँसे लेने के लिए 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुई जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिए इस लोक को छोड दिया और हमेशा के लिए सो गए। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गए और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गये--
मैं सभी के करूण-स्वर हूँ सुन चुका
हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका।