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11:30, 22 जनवरी 2011 <poem>दोस्तो ध्यान से सुनना
आप्त वचनों की तरह
शुद्ध हृदय से बोल रहा हूँ
आखिरी बार।
तमाम जनतान्त्रिक माहौल और उदारवादी अहसासों के बावजूद
पता नहीं क्यों डर रहा हूँ
कि इसके बाद कोई कविता नहीं लिखी जाएगी
कि इस के बाद जो कुछ भी लिखा जाएगा
वह होगा
आवेदन
जहां तय रहेगा पहले से एक प्रपत्र
तय रहेगीं विवरणों की सीमाएं
छोटे-छोटे कॉलमों में आप केवल
‘हां’ या ‘नहीं’ लिख सकेंगे
बड़ी हद ‘लागू नहीं’ लिख लीजिए
टीप के लिए नहीं बने होंगे हािशए ।
कुछ याचिकाएं होंगी
जिन्हें दायर करने के लिए
आपकी एक हैसियत चाहिए
और कोई अधिसूचना या
तयशुदा कानूनी शब्दावली में कोई अध्यादेश
जिसे फौरी तौर पर पढ़ने से
लगे कि सचमुच ही जनहित में जारी किया गया है!
इसके बाद कुछ लिखा जाएगा
तो हलफनामे और अनुबंध लिखे जाएंगे
और भनक भी नहीं लगेगी
कि आपने अपने इन हाथों से अपनी कौन सी
ज़रूरी ताकतें रहन लिख दीं!
इसीलिए दोस्तो ध्यान से सुनना
बड़ी मेहनत से लिख रहा हूं
अपने नाखून छील कर
अपनी ही पीठ पर
गोद रहा हूं ये तल्ख तेज़ाबी अक्षर।
तुम ध्यान दोगे अगर
तो मेरी दहकती पीठ पर ठण्डक उतर आएगी
दूना-चौगुना रक्त दौड़ेगा धमनियों में
स्वस्थ मज्जा से
मेरी खोखली रीढ़ भर जाएगी
तुम्हारी सामूहिक उर्जा से आविष्ठ होगा
मेरा स्नायुतन्त्र
तन कर सीधी खड़ी हो जाएगी मेरी संक्रमित देह
मौसम की मनमर्जि़यों के खिलाफ
चमकेंगे नए हरूफ मेरी बेचैन छाती पर
यही मौका है, दोस्तो ध्यान से सुनना
तन्मय होकर
कहीं यह आखिरी कविता न हो !
1990
</poem>