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पराए ग़म को भी हम अपना ग़म समझते हैं / चाँद शुक्ला हदियाबादी
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08:21, 26 जनवरी 2011
जो हमपे गुज़री है ऐ ‘चाँद’ हम समझते हैं
जो साहिबाने बसीरत
है
हैं
संग में ऐ `चाँद’
छुपे हुए हैं अज़ल से सनम समझते हैं
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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