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छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बॉंस बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
थक गए हो?
ऑंख आँख लूँ मैं फेर?
क्‍या हुया यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्‍हारी मॉं माँ न माध्‍यम बनी होगी आज
मैं न सकता देख
तुम्‍हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्‍य तुम, मॉं माँ भी तुम्‍हारी धन्‍य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्‍य!
इस अतिथि से प्रिय क्‍या रहा तुम्‍हारा संपर्क
उँगलियॉं मॉं उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि ऑंखे आँखे चार
तब तुम्‍हारी दंतुरित मुसकान
लगती बड़ी ही छविमान!
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