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|रचनाकार=जहीर कुरैशी
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उपन्यासों की बानी हो रही है
बहुत लम्बी कहानी हो रही है

बदल जाए न उसका स्वर अचानक
वो जिसकी मेज़बानी हो रही है

बहुत वाचाल लोगों के शहर में
उपेक्षित बेज़ुबानी हो रही है

कली पढ़ ले न छल की देह भाषा
यहाँ तक सावधानी हो रही है

महक को ले उड़े पंछी हवा के
सशंकित रातरानी हो रही है

बदलते साथ मेरे मन का मौसम
अचानक रुत सुहानी हो रही है

कहीं आकाश है उसके सपन में
जो नदिया आसमानी हो रही है
</poem>