1,163 bytes added,
13:10, 4 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
वो जिन लोगों को सपने बेचते हैं
फिर उनको ही करिश्मे बेचते हैं
हों हेड और टेल जिनके एक जैसे
ठगों को हम वो सिक्के बेचते हैं
खुले बाज़ार की काली सदी में
अब आईनों को अन्धे बेचते हैं
है जिनके मन में गहरी तिक्तताएँ
हमेशा व्यंग्य तीखे बेचते हैं
जो उड़ना चाहते हैं बिन परों के
पतंगें या परिंदे बेचते हैं
घटी विज्ञापनों से तारिकाएँ
कई चीज़ों को बच्चे बेचते हैं
ये कैसा दौर है जादूगरी का
मदारी को जमूरे बेचते हैं
</poem>