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सिर्फ़ / अनिरुद्ध नीरव
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05:27, 22 फ़रवरी 2011
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<Poem>
पात झरे हैं सिर्फ़
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।
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अनिल जनविजय
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