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बस गयी रगों है रग-रग में दीवारोबामो-दर की ख़ामोशी
चीरती-सी जाती है अब ये घर की ख़ामोशी
पड़ गई है आदत अब साथ तेरे चलने की
बिन तेरे कटे कैसे ये सफ़र की ख़ामोशी
 
{त्रैमासिक लफ़्ज़, दिसम्बर-फरवरी 2011}
</poem>
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