'''पद 111 से 120 तक'''
तुलसी प्रभु (111) श्री केसव! क्हि न जाइ का कहिये। देखत रव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये। सून्य भीति पर चित्र , रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे। धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे।। रबिकर-नीर बसै अति दारून मकर रूप तेहि माहीं। बदन -हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं। कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै । तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सेा आपन पहिचानै।
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