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विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 27

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'''पद 261 से 270 तक'''
(261) श्री मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं, राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं ।  निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं? लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं।।  मानस मलीन, करतब कलिमल पीन जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।  कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो, बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं।।  देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई, प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।  राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन, इनकी भगति कीन्हीं इनही को भाउ मैं।  आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें। बूझियत गति, कछु कीन्हो तो न काउ मैं।  जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी प्रभु हू, झूठे -साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं।। (263)श्री नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।  रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो, रूचिर रहनि रूचि मति गति तीयकी।।  कुकृत -सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो, परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।।  मेरे भलेको गोसाईं! पेचको, न सोच -संक, हौहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी।।  ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी, यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?  तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित, राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी।। 
</poem>
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