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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र}}{{KKCatKavita‎}}<poem>कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे। प्यारे । किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे॥बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था॥छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत। दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत॥छिपे हो कौन-से परदे में बेटा। निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा॥बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते। तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते॥किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा। अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा॥गई संग में जनक की जो लली है। इसी में मुझको और बेकली है॥कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर। कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर॥ गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ। तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ॥मेरी आँखों की पुतली कहाँ है। बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है॥कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो। मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो॥लगी है आग छाती में हमारे। बुझाओ कोई उनका हाल कह के॥मुझे सूना दिखाता है ज़माना। कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना॥अँधेरा हो गया घर हाय मेरा। हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना॥मेरा धन लूटकर के कौन भागा। भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा॥हमारा बोलता तोता कहाँ है। अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है॥कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे। अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे॥कोई कुछ हाल तो आकर के कहता। है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा॥हवा और धूप में कुम्हका के थककर। कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर॥जो डरती देखकर मट्टी का चीता। वो वन-वन फिर रही है आज सीता॥कभी उतरी न सेजों से जमीं पर। वो फिरती है पियोदे आज दर-दर॥न निकली जान अब तक बेहया हूँ। भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ॥मेरा है वज्र का लोगो कलेजा। कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता॥मेरे जीने का दिन बस हाय बीता। कहाँ हैं राम लछमन और सीता॥कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे। न रह जाये हविस जी में हमारे॥कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम। मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम॥मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान। हुए क्या हाय मेरे राम भगवान॥कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे। यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे। सिधारे ।।
बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था ।।
 
छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।
 
छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।
 
बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।
 
किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।
 
गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है ।।
 
कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।
 
गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।
 
मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।
 
कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।
 
लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।
 
मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।
 
अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।
 
मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।
 
हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।
 
कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।
 
कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।
 
हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।
 
जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।
 
कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।
 
न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।
 
मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।
 
मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।
 
कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।
 
कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।
 
मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।
 
कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।
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