968 bytes added,
04:10, 21 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
जीवन की चट्टानों से टकरा कर
सारी लहरों के टूट जाने का दृश्य है यह
चाहो तो इस अब भी प्रेम कह लो
चाहो तो रह लो अब भी मुग्ध
पर प्रेम तो गया
झरी फूल पत्ती की सुगंध की तरह
उसी सागर की बेछोर गहराई में
जिसमें लहरें बन कर थोड़ी ही देर पहले वह उपजा था
चाहो तो इसे अब भी प्रेम कह लो !
</poem>