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चाँद / आलोक श्रीवास्तव-२

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|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
'''(१)'''

आज अचानक चांद दिख गया
समूचा रुपहला चांद

नवंबर की एक आधी रात का
यह चांद
किसी की याद है

धानी लिबास में लिपटा
एक चेहरा है
दूर जाता हुआ
समय में ।

(२)

तुम्हारे चेहरे को
इस चांद की साक्षी में
हथेली में थाम कर चूमना चाहता था

पूरे चांद की यह कैसी रात है
कि उस चेहरे का दिखना तक
अब मुहाल नहीं !
</poem>
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