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06:07, 21 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
अजनबी रास्तों से गुज़रते हुए
मुझे तुम्हारी बहुत याद आई
धुंध में डूबे शहरों की
सूनसान गलियां
बंद सांकलों वाले दरवाज़े
पुराने घरों की छतों पर
दुपहरी की उदास रागदारी
हर बार
नए सिरे से तुम्हारी याद दिलाते रहे
मुझे फूलों का रंग भूल गया था
मैं सारे मौसम छोड़ आया था
एक खंडहर का
गुंबद था मेरे सामने
नदी बह रही थी खंडहर के बाजू से
हमेशा की तरह ख़ामोश थे पेड़
सिराती हुई उम्र थी
दुखों का एक सिलसिला था
हर राह, हर गली, हर शहर में फैला
एक लड़ाई थी बेमानी दुखों और
यादों के बीच ।
</poem>