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|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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पस ए पर्दा किसी ने मेरे अरमानों की महफ़िल को
कुछ इस अन्दाज़ से देखा, कुछ ऐसे तौर से देखा
ग़ुबार ए आह से देकर जिला आईना ए दिल को
हर इक सूरत को मैंने ख़ूब देखा, ग़ौर से देखा
नज़र आई न वो सूरत, मुझे जिसकी तमन्ना थी
बहुत ढूंढा किया गुलशन में, वीराने में, बस्ती में
मुन्नव्वर शमअ ए मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी
मगर चारों तरफ था घुप अन्धेरा मेरी हस्ती में
दिल ए मजबूर को मजरूह ए उलफ़त कर दिया किसने
मेरे अहसास की गहराईयों में है चुभन ग़म की
मिटा कर जिस्म, मेरी रूह को अपना लिया किसने
जवानी बन गई आमाजगाह सदमात ए पैहम की
हिजाबात ए नज़र का सिलसिला तोड़ और आ भी जा
मुझे इक बार अपना जलवा ए रंगीं दिखा भी जा
</poem>