|रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह
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<poem>
तुमने मुझे और गूँगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
::सब चीज़ों पर छा गई
तुमने मुझे मै और गूँगा बना दिया<br>भी अकेला हो गयातुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद:::मैं एक ही सुनहरी आभा-सी<br>ग़ार से निकला::सब चीज़ों पर छा गई<br><br>::अकेला, खोया हुआ और गूँगा
मै और भी अकेला हो अपनी भाषा तो भूल ही गया<br>जैसेतुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद<br>चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई:::मैं एक ग़ार से निकला<br>जैसे पेड़ पौधों की होती है::::अकेला, खोया हुआ और गूँगा<br><br>नदियों में लहरों की होती है
अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे<br>हज़रत आदम के यौवन का बचपनाचारों तरफ़ हज़रत हौवा की भाषा ऐसी हो गई<br>युवा मासूमियत::जैसे पेड़ पौधों की होती है<br>::नदियों में लहरों की होती है<br><br>कैसी भी! कैसी भी!
हज़रत आदम के यौवन का बचपना<br>ऐसा लगता है जैसेहज़रत हौवा की युवा मासूमियत<br>तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई होकैसी भी! कैसी भी!<br><br>मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख मेंआनंद का स्थायी ग्रास... हूँ
ऐसा लगता है जैसे<br>मूक।तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो<br>मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में<br>आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ<br><br> मूक।<br/poem>