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पहले की तरह / अनिल जनविजय

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(2006 में रचित)
प्रतीक्षा
 
 
अभी महीना गुज़रा है आधा
 
शेष और हैं पंद्रह दिन
 
समय यह सरके कच्छप-गति से
 
नंदिनी तेरे बिन
 
 
जीवन खाली है, मन खाली
 
स्मृति की जकड़न
 
नीली पड़ गई देह विरह से
 
घेर रही ठिठुरन
 
 
मर जाएगा कवि यह तेरा
 
बिखर जाएगा फूल
 
अरी, नंदिनी, जब आएगी तू
 
बस, शेष बचेगी धूल
 
बदलाव
 
जब तक मैं कहता रहा
 
जीवन की कथा उदास
 
उबासियाँ आप लेते रहे
 
बैठे रहे मेरे पास
 
 
पर ज्यों ही शुरू किया मैं ने
 
सत्ता का झूठा यश-गान
 
सिर-माथे पर मुझे बैठाकर
 
किया आप ने मेरा मान
 
 
वह दिन
 
 
उचकी वह पंजों पर थोड़ा-सा
 
फिर मेरी ओर होंठ बढ़ाए
 
चूमा उसे मैं ने यों, ज्यों मारा कोड़ा-सा
 
यह अहम हमारा हमें लड़ाए
 
 
फिर झरने लगे आँसू वहाँ निरंतर
 
धुल गए बोझल से वे पल-छिन
 
सावन की बारिश में निःस्वर
 
डूब गया वह उदास दिन
 
 
वह लड़की
 
 
दिन था गर्मी का, बदली छाई थी
 
थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई
 
लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी
 
थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई
 
 
मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका
 
करती है वह क्या काम
 
याद मुझे बस, संदल का भभका
 
और उस के चेहरे की मुस्कान
 
 
विरह-गान
 
(कवि उदय प्रकाश के लिए)
 
 
दुख भरी तेरी कथा
 
तेरे जीवन की व्यथा
 
सुनने को तैयार हूँ
 
मैं भी बेकरार हूँ
 
 
बरसों से तुझ से मिला नहीं
 
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
 
एक पत्ता भी खिला नहीं
 
 
तू मेरा जीवन-जल था
 
रीढ़ मेरी, मेरा संबल था
 
अब तुझ से दूर पड़ा हूँ मैं
 
 
संदेसा
 
 
कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
 
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
 
कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
 
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल
 
 
क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
 
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
 
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
 
लगे, दूर है बहुत मस्क्वा से भोपाल
 
 
बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
 
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
 
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
 
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण
 
 
होली का वह दिन
 
 
होली का दिन था
 
भंग पी ली थी हम ने उस शाम
 
घूम रहे थे, झूम रहे थे
 
माल रोड पर बीच-सड़क हम सरेआम
 
 
नशे में थी तू परेशान कुछ
 
गुस्से में मुझ पर दहाड़ रही थी
 
बरबाद किया है जीवन तेरा मैं ने
 
कहकर मुझे लताड़ रही थी
 
 
मैं सकते में था
 
किसी चूहे-सा डरा हुआ था
 
ऊपर से सहज लगता था पर
 
भीतर गले-गले तक भरा हुआ था
 
 
तू पास थी मेरे उस पल-छिन
 
बहुत साथ तेरा मुझे भाता था
 
औ' उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
 
यह विचार भी मन में आता था
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