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13:06, 20 अप्रैल 2011 <poem>
(चित्रकार सुखदास की पेंटिंग्ज़ देखते हुए )
'''अकड़'''
रंग बरंगे पहाड़
रूह न रागस
ढोर न डंगर
न बदन पे जंगल......
अलफ नंगे पहाड़ !
साँय साँय करती ठंड में
देखो तो कैसे
ठुक से खड़े हैं
ढीठ
बिसरमे पहाड़ !
'''चुप्पी'''
काश ये पहाड़
बोलते होते
तो बोलते
काश
हम बोलते होते
'''सुरंग'''
पर ज़रा सोचो गुरुजी
जब निकल आयेगी
इस की छाती मे एक छेद
और घुस आएंगे इस स्वर्ग मे
मच्छर
साँप बन्दर
टूरिस्ट
और ज़हरीली हवा
और शहर की गन्दी नीयत
और घटिया सोच, गुरुजी
तब भी तुम इन्हे ऐसे ही बनाओगे
अकड़ू
और खामोश ?
1996
</poem>