* [[ / शिरीष कुमार मौर्य]]
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== ग़ज़लें ==
'''एक'''
आसमानों का असर बाक़ी रहे
छीन ले परवाज़, पर बाक़ी रहे
टूटते कांधों पे' सर बाक़ी रहे
जाता रहे मकान घर बाक़ी रहे
सोख डाला हर समंदर वक़् त ने
सीप में थे जो गुहर बाक़ी रहे
मैं भले ही रुक गया थक-हारकर
पांव में मेरे सफ़र बाक़ी रहे
टूट जाएं मेरी तामीरें मगर
मेरे हाथों में हुनर बाक़ी रहे
दुश्मनों ने तो हमें अपना लिया
दोस्त के सीने में डर बाक़ी रहे
भूल जाए अब ज़ेहन हर बात को
एक छोटी-सी बहर बाक़ी रहे
दोस्ती पल में सिमट कर खो गई
और झगड़े उम्र भर बाक़ी रहे
मिट गए जो ख़ास थे,मशहूर थे
और अदने-से बशर बाक़ी रहे
***
'''दो'''
कोई वादा तलब नहीं होता
पहले होता था अब नहीं होता
वो जो करते हैं सैकड़ों बातें
उनका कोई सबब नहीं होता
बेअसर होती हैं दुआएं मेरी
जब मैं होता हूं, रब नहीं होता
वो निभाता है बहुत दूर तलक
जिसको रिश्तों का ढब नहीं होता
पहले मिलते थे दोस्तों से गले
ये तमाशा भी अब नहीं होता
उसके मिलने पे' सहम जाता हूं
उससे मिलना भी कब नहीं होता
***