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आज / केदारनाथ अग्रवाल

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|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल
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खोल चौड़ी कड़ी छाती को प्रति क्षण
 
अब नगाड़े कब कड़कते !
 
ढोल, ढीले बोल को ऊपर उठाने
 
अब नहीं हम ज़ोर भरते !
 
अंग-अंग उमंग में नव रंग लेकर
 
अब न दंग मृदंग करते ।
 
ठंड से ऎंठे हुए, ठिठुरे बहुत ही,
 
अब न तबले ही ठनकते !!
 
प्यार-पारावार बारम्बार पा कर
 
अब न तार-सितार तनते ।
 
लीन अन्तर्गीत के मद पीन में हो
 
बीन के न विहाग तरते ।
 
राव-रंगी, भाव-भंगी, केलि-संगी,
 
स्वर सरंगी के न सजते ।
 
आज बर्बर क्रूर कर्कश विश्व भर को
 
सभ्यता के गाल बजते ।
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