2,482 bytes added,
17:02, 2 मई 2011 {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=रमा द्विवेदी }}
<poem>
लड़की की विदाई के समय सबने कहा,
अब सब कुछ भूल कर,
अपना पति और घर-संसार देखना ,
हां मैं भी तो इसी सीख पर
चाहती हूं चलना,
किन्तु क्या करूं?
पहली छुअन,पहलेपहल दिल का लगना,
कभी भूलता नहीं,
तो फिर कैसे?
इस आरोपित पुरुष के प्रति प्रेम करूं?
कैसे ? कैसे? वो करूं?
जिसके स्पर्श मात्र से,
बदन में सहस्त्र शूलों के चुभने का,
असहनीय दर्द कराह उठता है,
आत्मा को लहुलुहान करता,
देह लाश बन जाती है,
फिर भी वह आरोपित पुरुष,
भोगता है उस जिन्दा लाश को,
क्योंकि वह उसकी ब्याहता है,
अपने अधिकार को,
कैसे छोड़ दे?
लेकिन उसने तो अपने अधिकार का,
दावा कभी नहीं किया,
चाहे उसने उसे ,
दूसरी स्त्री की बाहों में
झूलते ही क्यों न देखा हो?
यह अधिकारबोध
सामाजिक मर्यादाओं का बंधन है
या आत्मा की सीमाएं,
जिसे एक तो लांघ सकता है,
किन्तु दूसरा?
अपनी आत्मा की बलि चढ़ा कर भी,
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए भी,
वह नहीं लांघ सकती,क्यों?
कैसी विड़म्बना है जीवन की,
कितनी विचित्र हैं मान्यताएं?
हरदम स्त्री को ही कोसा जाता है,
अग्नि परीक्षा उसे ही देनी पड़ती है?
आखिर क्यों और कब तक??
<poem>