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ग़ज़ल-4 / मुकेश मानस

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चलते ही जाना, चलते ही जाना
मेरी ज़िन्दगी का यही है फसाना

जंगल है आगे, सहरा है पीछे
कुछ भी मैंने रुकना न जाना

लगी जब भी ठोकर, खुद को संभाला
यूं ही गिरते उठते, जीवन को जाना

मैं ऐसा मुसाफ़िर नहीं जिसकी मज़िल
मगर जिसकी धुन है, चलते ही जाना

मैं आज खुद से मुख़ातिब हूँ यारो
न आवाज़ देना, न मुझको बुलाना
2005


<poem>
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