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सुख / कीर्ति चौधरी

167 bytes added, 17:37, 5 मई 2011
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|रचनाकार=कीर्ति चौधरी |संग्रह=’तीसरा सप्तक’ में शामिल रचनाएँ / कीर्ति चौधरी
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रहता तो सब कुछ वही है
 ये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...बदलता तो कुछ भी नहीं है। है ।
लेकिन क्या होता है
 
कभी-कभी
 
फूलों में रंग उभर आते हैं
 मेज़पोश -कुशनों पर कढ़े हुए चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं।हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
 आसपास बिखरी किताबें क़िताबें सब 
शब्द-शब्द
 भेद सभी खोलेंगी।  खोलेंगी । अनजाने होठों पर गीत आ जाता है। है ।
सुख क्या यही है ?
 
 
बदलता तो किंचित् नहीं है,
 लेकिन क्या होता है कभीये पर्दे-कभी !-यह खिड़की--ये गमले...</poem>
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