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सुख / कीर्ति चौधरी
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17:38, 5 मई 2011
ये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।
सुख क्या यही है ?
अनिल जनविजय
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