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न जाने क्या होगा / जगदीश व्योम
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07:30, 14 मई 2011
भटकी भटकी सी प्रतिभाएं
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब
ओेढ़नी
ओढ़नी
धूप,
न जाने क्या होगा
समृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अंगुलियों में
फंस कर
फंसकर
फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा
डा० जगदीश व्योम
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