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भटकी भटकी सी प्रतिभाएं
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब ओेढ़नी ओढ़नी धूप,
न जाने क्या होगा
समृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अंगुलियों में फंस कर फंसकर फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा