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शिकवा / इक़बाल

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अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?
ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूरनहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउरकहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूरऔर बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर
अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे हम पे इनायात महीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं ?
बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया ।
हम तो रुक़सत रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया
फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया ।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे ?
तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गएशब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गएदिल तुझे दे भी गए ,अपना सिला ले भी गएआके बैठे भी न थे और निकाले भी गए
आए उश्शाकउश्शाक़ <ref>आशिक़ का बहुवचन</ref>, गए वादा-ए-फरदा लेकरअब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर
दर्द-ए-लैला भी वहींवही, क़ैस <ref>लैला मजनूं की कहानी में मजनूं का वास्तविक नाम क़ैस था । मजनूं का नाम उसे पाग़ल बनने के बाद मिला । अरबी भाषा में मजनूं का शाब्दिक अर्थ पागल होता है । </ref> का पहलू भी वहीनज्द <ref>मध्य ईरान का रेगिस्तान </ref>के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू <ref>हिरण की चौकड़ी </ref> भी वहीइश्क़ का दिल भी वही, हुस्न का जादू भी वहीउम्मत-ए-अहद-मुरसल भी वही, तू भी वही
फ़िर ये आज आरज़ू गुस्तगी, ये ग़ैर-ए-सबब क्या मानी?अपने शहदारो शअदाओं पर ये चश्म -ए-ग़ज़ब क्या मानी?
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी <ref>अरब का पैगम्बर यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा?
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा
रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी को छोड़ा ?
आग तपती सी तकबीर <ref>ये स्वीकारना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका दूत था, इस्लाम कबूल करना या करवाना </ref> की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हवसी रखते हैं ।
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है ।
सर-ए-फ़ाराँ से पे किया दीन को कामिल तूने
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने ।
आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूनेफ़ूँक दी गर्मी-ए-रुख्सार से महफिल महफ़िल तूने ।
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं?
हम वही शोख़ सा दामां, तुझे याद नहीं ?
वादी ए नज़्द में वो शोर-ए-सलासिल <ref>जंज़ीर </ref> न रहाकैस क़ैस दीवाना-ए-नज्जारा-ए-महमिल न रहाहोसले हौसले वो न रहे, हम न रहे, दिल न रहा
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा ।
ख़ुसारू कि ख़ुश आं रूज़ के आइव बशद--बशद नाजाईदे हिजाबां न बे हिजाज़ बा ना सू-ए-महफ़िल-ए-माबाईमाबाज़ आई ।
बादाकश ग़ैर हैं, गुलशन में लब-ए-जू <ref>झरने के किनारे </ref> बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़<ref>हथेली पर </ref>, नग़मा-ए-कू-कू बैठे ।
दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू <ref>एक तरफ़ </ref> बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़र-ए-तू हू बैठे ।
अपने परवानों को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी देबर्के तेरी ना वो दैरीना को फ़रमान-ए-जिगर चोरी दे सोज़ी दे
क़ौम-ए-आवारा इनाताब इनां ताब है फिर सू-ए-हिजाजहिजाज़ ।ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाजमुज़्तरिब गाग़ बाग़ के हर गुंचे में हैबू-ए-नियाज़ ।तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना मिज़राब-ए-मिज़राज़ साज
नगमें बेताब है तारों से निकलने के लिएदूर तूर मुज्तर हैं उसी आग में जलने के लिए ।
मुश्किलें उम्मते उम्मत-ए-मरदूम की आसां कर दे ।
नूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे ।
इनके नायाब-ए-मुहब्बत को फ़िर अरज़ां कर दे
हिन्द के नए दैर नशीनों को मुसल्मान कर दे ।
जू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते दैर इना देरीना मा ।मीतपद नाला ब-नश्तर कदा-यहना सीना मा । <ref> फ़ारसी में लिखी पंक्ति का अर्थ है - ख़ून की धार हमारी हसरतों से निकलती है, और छुरी से हमारे चीखने की आवाज़ आती है । (अपूर्ण अनुवाद है ।) </ref>
बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमनक्या क़यामत है कि ख़ुद भूल है फूल हैं ग़माज़-ए-चमनअहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमनउड़ गए डालियों से जमजमा परदा-ए-परवाज़-ए-चमन ।
एक बुलबुल है कि है महव-ए-तरन्नुम <ref>संगीत में खोया </ref> अबतक ।इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम <ref>तूफ़ान</ref> अबतक ।
क़ुमरियां साख़-ए-सनोवर<ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़ ।</ref> से गुरेज़ां भी हुई ।
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उसकी ।
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी, न मज़ा जीने मेंकुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर सीने पीने में ।कितने बेताब हैं जौहर मेरे आईने में
किस क़दर जल्वे तड़पते है मेरे सीने में ।
</poem>
(कविता में बहुत सी अशुद्धियाँ है । इन्हें शब्दार्थों के साथ शीघ्र ही सुधारा जाएगा । तथा शोधन में सहयोग का स्वागत है।)  
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