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निराशा की कविता / मंगलेश डबराल

No change in size, 17:00, 29 दिसम्बर 2007
भुत बहुत कुछ करते हुऎ हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये
तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही
हमें उदार नहीं बना पाता. हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई
देता है. रंगों में हमें ख़ून क धब्बे और हत्य्यों हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
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