कोई ऊँची अटारी पे बैठा रहा, हाय! हमने उसे क्यों पुकारा नहीं!
झुकके आँचल में उसने जिसने समेटा हमें, ज्यों ही तूफ़ान ने सर उभारा नहीं
उनसे उम्मीद क्या, बाद मरने के वे, दो क़दम आके काँधा भी देंगे कभी
जो अभी डूबता देखकर भी हमें, एक तिनके का देते सहारा नहीं
वार दुनिया के हँस-हँसके झेला किया, हमने दुश्मन न समझा किसी को किसीको कभी
जिनको अपना समझते थे दिल में मगर, बेरुख़ी आज उनकी गवारा नहीं