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02:41, 2 जुलाई 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=कल सुबह होने के पहले / शलभ श्रीराम सिंह
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<poem>
अचानक जवान होने का अहसास.....
कि जैसे सब कुछ....सब कुछ बदल गया !
तालाब की गहराई में
चाँद को पहरों निहारने के बाद
पत्थर फेंक देने की इच्छा हो गयी !
अनिद्रा की सार्थकता अर्थहीन-सी लगने लगी !
एक ही पंक्ति की पुनरावृत्ति : वितृष्णा ! उत्तेजना-आदेश --
प्रेरणा : एक संस्कार-त्रिकोण । ब्लैकाआउट : अंधकार की शरण !
साइरन : आदिम नगाड़ों का खींच कर लम्बा कर दिया गया स्वर !
कहीं कुछ भी भयानक अथवा गम्भीर ?
नीले आकाश पर मांस के लोथड़े जैसा कोई धब्बा ?
हवा का आचरण शब्द-वहन के अतिरिक्त कुछ नया ?
मिट्टी को किसी नये रंग की तलाश (?)
आदमी के अंगों में कहीं कोई वृद्धि ?
किसी नई मछली की उड़ान ?
शायद कुछ नहीं ! कुछ भी तो नहीं !
क्य हुआ ?
अगर किसी नदी ने बदल दिया अपना रास्ता !
स्थानान्तरित हो गया कोई समुद्र !
ज़रूरत है
नई फ़सल के लिए उपजाऊ जमीन
और सूर्य को आईना दिखाने वाली ऊँचाई की !
(१९६५)
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