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02:51, 2 जुलाई 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=कल सुबह होने के पहले / शलभ श्रीराम सिंह
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
शहर में
कौवे नहीं रह गए !
आओ !
छत पर खड़े होकर
राहगीरों पर पत्थर फेंकें !
उनकी झुँझलाहट पर हँसे !
तालियाँ बजायें
और गालियाँ सुनें !
आओ ! आओ !! आओ !!!
हमारा होना जानकर
छत पर
कोई भी लड़की
बाल सुखाने के लिए
नहीं आयेगी !
खिड़की से सट कर बैठा कवि
नोबुलप्राइजी सपनों की लाश पर
एलिजी पढ़ता हुआ उठ जाएगा !
आओ छत पर खड़े होकर
राहगीरों पर पत्थर फेंकें !
शहर में कौवे नहीं रह गए अब !
(१९६४)
</poem>