बंदनवार भी नहीं झूलते
न झाड़-बुहार ही होती है
वन्या उद्भावनाएँ उद्भावनाएँ भी छाँटी नहीं गईगईं
कभी प्रतीक्षा भी नहीं थी
आशा भी नहीं।
बस, जंगल में बसी इक झोंपडी़ की ढुलवाँ छत का पानी
वहीं किसी शिला की कठोरता और शीतलता पर बैठ
रातों में टूटते तारे भी गिन-गिन
नींदें काटी जाती हैंहों,
सूर्य की किरणों के प्रथम स्पर्श में भी
उड़ते धूल-कण ही देखने का अभ्यास बन गया हो,
माचिस की बुझी तीली से
एक कविता उकेर दी।
जब-जब उसे पृष्ठ पर उतारना चाहा-
रो लेने की कामना
कागज़ घेर लेती।
मेरी आँखों का नमकीन घोल
तुम्हारी दाल में न जा गिरे ;
::: कसैली दाल भी क्या परोसी जाती है, भला?
मैं शक्कर और नमक के
कोई अधूरी पंक्ति पूरी कर दो न!!
:::यह सच है, सखे!.......
:::मेरी भाषा की गढ़न
:::कविता नहीं लिख सकती,
:::वाक् और अर्थ के नियंता
:::सुधीजन
:::चकला-बेलन की चतुर्दिक चतुर्दिक् परिधि में फैले आटे में
:::बुझी तीलियों से
:::कविता लिखने के अपराध में
:::दंडित भी करेंगे मुझे,
:::बवाल भी करेंगे खूब
:::पर
:::तुम्हारी दाल-भात छुई उँगलियाँ
:::आटे में उकेरी कविता को बचा लें
:::मैं, तुम्हें
:::अपने चौके में बिठा
:::अपने हाथों से परोसपरस
:::लवण और शक्कर
:::सब चखाना चाहती हूँ.....।
बचा सको
दो आँसुओं से
हस्त-प्रक्षालन करवा दूँ।
::::: संकल्प के मंत्र तो
::::: आते होंगे तुम्हें........?
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