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17:18, 9 जुलाई 2011 शाम का वक्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके माँदे परिंदों को उडाता क्यों है
स्वाद कैसा है पसीने का ये मज़दूर से पूछ
छाँव में बैठके अंदाज़ा लगाता क्यों है
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिये फिर हाथ बढाता क्यों है
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है
भूल मत तेरी भी औलाद बडी होगी कभी
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है
वक्त को कौन भला रोक सका है पगले
सूइयाँ घडियों कि तू पीछे घुमाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब- त्याग, तपस्या, पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है
जिसने तुझको कभी अपना नहीं समझा ऎ ’नाज़’
हर घडी उसके लिये अश्क बहाता क्यों है