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साँचा:KKPoemOfTheWeek

279 bytes removed, 07:32, 14 जुलाई 2011
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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अदावत दिल में रखते हैं आदिवासी ('''रचनाकार:''' [[वीरेन्द्र खरे 'अकेला' अनुज लुगुन ]])</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
अदावत दिल में रखते वे जो सुविधाभोगी हैं मगर यारी दिखाते या मौक़ा परस्त हैंया जिन्हें आरक्षण चाहिएकहते हैं हम आदिवासी हैं,वे जो वोट चाहते हैंकहते हैं तुम आदिवासी हो,वे जो धर्म प्रचारक हैंकहते हैंतुम आदिवासी जंगली हो ।वे जिनकी मानसिकता यह हैकि हम ही आदि निवासी हैंन जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते कहते हैंतुम वनवासी हो,
यक़ीनन उनका जी भरने लगा है मेज़बानी सेऔर वे जो नंगे पैरवो कुछ दिन से हमें जाती हुई लारी दिखाते चुपचाप चले जाते हैंजंगली पगडंडियों मेंकभी नहीं कहते किउलझना है हमें बंजर ज़मीनों की हक़ीक़त सेहम आदिवासी हैंउन्हें क्या, वो तो बस काग़ज़ पे फुलवारी दिखाते वे जानते हैं मदद करने जंगली जड़ी-बूटियों से पहले तुम हक़ीक़त भी परख लेनायहाँ पर आदतन कुछ लोग लाचारी दिखाते हैंअपना इलाज करना डराना चाहते वे जानते हैं वो हमें भी धमकियाँ देकरजंतुओं की हरकतों सेबड़े नादान हैं पानी को चिन्गारी दिखाते हैंमौसम का मिजाज समझना दरख़्तों की हिफ़ाज़त करने वालो डर नहीं जानादिखाने दोसारे पेड़-पौधे, अगर कुछ सरफिरे आरी दिखाते हैंपर्वत-पहाड़ हिमाक़त क़ाबिलेनदी-तारीफ़ है उनकी ‘अकेला’जीझरने जानते हैंहमीं से काम है हमको ही रंगदारी दिखाते कि वे कौन हैं
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