Changes

लोचनों से चू रहे अंगार थे॥
स्वप्न राणा कह रहे थे रात का,
लोग सुनते जा रहे थे ध्यान से।
एक नीरवता वहाँ थी छा रही,
मलिन थे सब राज – सुत – बलिदान से॥
 
सुन रहे थे स्वप्न की बातें सजल,
आग आँखों में कभी पानी कभी।
शांत सब बैठे हुए थे, मौन थे,
क्रांति मन में और कुर्बानी कभी॥
 
क्या कहूँ मैं नींद में था या जगा,
निविड़ तम था रात आधी थी गई।
एक विस्मय वेदना के साथ है,
नियति से गढ़ की परीक्षा ली गई॥
 
राजपूतो, इष्टदेवी दुर्ग की
भूख की ज्वाला लिए आई रही।
मलिन थी, मुख मलिन था, पट मलिन थे,
मलिनता ही एक क्षण छाई रही॥
 
देख पहले तो मुझे कुछ भय हुआ,
प्रश्न फिर मैंने किया तुम कौन हो,
क्यों मलिन हो, क्या तुम्हें दुख है कहो,
खोलकर मुख बोल दो, क्यों मौन हो॥
 
शीश के बिखरे हुए हैं केश क्यों,
क्यों न मुख पर खेलता मृदु हास है।
निकलती है ज्योति आँखों से न क्यों।
क्यों न तन पर विहसता मधुमास है॥
 
यह उदासी, वेदना यह किस लिए,
आँसुओं से किस लिए आँखें भरीं।
इस जवानी में बुढ़ौती किस लिए,
किस लिए तुम स्वामिनी से किंकरीं॥
 
कौन है जिसने सताया है तुम्हें,
किस भवन से तुम निकाली हो गई।
प्राण से भी प्रिय हृदय से भी विमल,
वस्तु कोई क्या कहीं पर खो गई॥
 
रतन के रहते सतावे दीन को
कौन ऐसा मेदिनी में मर्द है।
नाम उसका दो बता निर्भय रहो,
और कह दो कौन-सा दुख दर्द है॥
 
तुम रमा हो, हरि - विरह से पीड़िता,
या शिवा हो, शंभु ने है की हँसी।
विधि – तिरस्कृत शारदा हो या शची,
शयनगृह में तुम अचानक आ फँसी॥
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits