हम अपनी आस्तीनों से ही आँखें पोंछ लेते हैं
हमारे आँसुओं ने कब किसी दामन की चाहत की
हमारे साथ हैं महकी हुई यादों के कुछ लश्कर
वो कुछ लमहे इबादत के, वो कुछ घड़ियाँ मुहब्बत की
वो चेहरे से ही मेरे दिल की हालत भाँप लेता है
ज़रूरत ही नहीं पड़्ती कभी शिकवा-शिकायत की
डरी सहमी हुई सच्चाइयों के ज़र्द चेहरों पर
गवाही है सियासत की, इबारत है अदालत की
हैं अब तक याद हमको ‘नाज़’ वो बीती हुई घड़ियाँ
कभी तुमने शरारत की, कभी हमने शरारत की
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